Friday, 11 February 2022

सुशोभित कृत पवित्र पाप

मन तो बहुत था Sushobhit जी की पवित्र पाप को एकांत में समझा जाए, स्त्री पुरुष संबंध के समीकरणों पर जो संवाद उन्होंने लिखे है उन्हें उनकी नजरों से समझने की कोशिश की जाए
स्त्री पुरुष के संबंध को इन्होंने इतनी बारीकी से लिखा है जैसे हम से हमारे ही मन की बात छीन ली हो, वैसे तो पुरुष मन ये स्वीकार नहीं करता लेकिन स्त्री की भावनाओं के आगे हम कुछ भी नहीं, सामाजिक परम्पराओं और नैतिकता के द्वंद में पुरुष का दंभ साफ दिखाई देता है, सुशोभित जी की पवित्र पाप में “प्रेम में स्त्री”पढ़ी तो लगा जैसे वर्तमान की नग्न हकीकत आंखो के सामने हो, कुछ पलों तक सोचता रहा और सोचता ही चला गया, क्या इससे आगे भी कुछ लिखा जा सकता था, नहीं, इन चंद पंक्तियों में छिपी बात शायद ही महान ग्रंथो मे लिखी दिखाई दे, आपके साथ साझा कर रहा हूं शायद आप भी समझ पाए ! 

                     “प्रेम में स्त्री”
“स्त्री प्रेम में हो तो दोष से उसको भय नहीं लगता ।
लक्ष्मणरेखा को लज्जा की देहरी की तरह लांघ जाती है अगर प्रेम में हो।
और पुरुष? पुरुष को तो प्रेम से भय लगता है क्योंकि उसके चित्त में ही दोष है।
पुरुष का बस चले तो प्रेम की अनिवार्यता ही समाप्त कर दे,किंतु बिना प्रेम के स्त्री का समर्पण कैसे मिले ?
विवाह और वेश्यावृति को पुरुष ने इसलिए रचा है, क्योंकि उसे स्त्री चाहिए,किंतु प्रेम के बिना चाहिए।
स्त्री को अगर विश्वास हो कि पुरुष उसका ही रहेगा, तो वो विवाह ही क्यों करे?
किंतु पुरुष पर विश्वास असंभव !
और पुरुष को विश्वास हो कि विवाह से स्त्री उसको मिल जायेगी तो प्रेम करने की जहमत ही वो क्यों उठाए ? 
क्योंकि प्रेम में वह अक्षम !
इस अंतर को समझना बहुत आवश्यक है !
स्त्री प्रेम और दोष को अलग-अलग नहीं देखती, पुरुष देखता है इसलिए स्त्री को दोष मात्र से ग्लानि नहीं होती जैसे पुरुष को होती है ।
स्त्री को कहो कि तुम सुंदर हो तो उसके भीतर कुछ खिल जाता है। 
सुंदर दिखना स्त्री के अस्तित्व की केंद्रीय आकांक्षा है। किंतु यही वह स्त्री है, जो इस बात से आहत होती है कि वह केवल एक देह मान ली जा रही है ! 
स्त्री देह हुए बिना सुंदर होना चाहती है ।
पुरुष देह की सुंदरता से मंत्रविद्ध नाग की तरह आविष्ट होता है,
यह भेद है !
स्त्री पुरुष से कहे कि तुम्हारी देह पर अनुरक्त हूं, तुम मेरे लिए पहले एक देह हो तो इससे पुरुष को गौरव ही होगा, आहत होना तो दूर पौरुष का दंभ इससे पुष्ट ही होगा, वैसा न हो तो उल्टे हीन भावना उसमें आ जाएगी ।
देह बनने से पुरुष आहत नहीं होता, उल्टे राहत की सांस लेगा कि अब प्रेम का स्वांग नहीं करना होगा, स्त्री को प्राप्त करने की लंबी प्रतीक्षा कम ही हुई, नंगे सच को स्वीकार किया गया !
पुरुष सुख का पिपासु है।
स्त्री भी है, शायद पुरुष से अधिक ही होगी किंतु स्त्री को सुख, सुख की तरह नहीं चाहिए उसे सुख प्रेम के आवरण में चाहिए ।
निरे नग्न सुख से स्त्री की आत्मा पूरती नहीं, वह उसको वितृष्णा से भरता है ।
 इतना भेद है!
स्त्री का मन मुझे आकृष्ट करता है उसकी जटिलताओं को जानने में मेरी रुचि है ।
पुरुष का मन तो स्त्री के सामने बालकों की तरह सपाट है स्त्री की एक प्रणयाकुल दृष्टि से ही वह विगलित हो जाता है, और उतार फेंकता है अपने समस्त श्रमस्वेद अर्जित आवरण ।

मुझे विश्वास है कि एकांत में स्त्रियां पुरुषों की इन दुर्बलताओं पर खूब हंसती होंगी !”

6 comments:

  1. सबसे पहला कमेन्ट मेरा है 👌🤣

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  2. गजब मेरे भाई क्या लिखा हैं

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  3. जी ये तो सच्चाई है

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  4. सच यही हैं भाई अब

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