Thursday, 24 February 2022

नासिर काज़मी और इश्क की उदासी..

नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए...
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए...
जिस धूप की दिल में ठंडक थी वो धूप उसी के साथ गई,
इन जलती बलती गलियों में अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिए...
वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए..
अब शहर में उस का बदल ही नहीं कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं,
ऐवान-ए-ग़ज़ल में लफ़्ज़ों के गुल-दान सजाऊँ किस के लिए...
मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में 'नासिर' अब शमा जलाऊँ किस के लिए...

शायरी पढ़ के मज़ा आ गया होगा ऐसा लग रहा होगा जैसे हमारी जिंदगी के एक मोड़ को बयां किया गया हो,

नासिर काजमी साहिब का अंदाज इतना रूहानी होता था कि कब आपकी नब्ज पकड़ ले कह नहीं सकते, उनके अल्फाजों में आशिक़ी हर दम मचला करती थी, उनका एक बयान भी है "इश्क शायरी और फ़न बचपन से ही मेरे खून में है" उनके इस बयान ने हमेशा उनकी जिंदगी की हकीकत को दर्शाया है।
मेहनत करना काजमी साहेब ने सीखा ही नहीं, वर्ना विभाजन के वक्त पाकिस्तान जाने के बाद 10 साल की जिंदगी यूं दर बदर ना गुजरी होती। हरफनमौला, मनमौजी,जो सोच लिया वो करना है चाहे फिर वो तकलीफदेह ही क्यों न हो।
उनका एक मजाकिया किस्सा भी है 
जब काजमी साहेब की शादी हुई तो सुहागरात के दिन काजमी साहब ने बीबी को देखते ही कहा कि मोहतरमा आप माफ़ करे लेकिन आपसे पहले मेरी एक बीबी और भी है, ऐसा सुनते ही दुल्हन के होश उड़ गए लेकिन अगले ही पल उन्होंने अपनी किताब "बर्ग-ए-नै” पेश की और कहा कि ये है हमारी दूसरी बीबी।
काजमी साहेब ने दुल्हन को मुंह दिखाई में अपनी वो किताब ही दी थी।

हम शाम को तन्हा बैठे जिंदगी की गाड़ी की बेतरतीब रफ्तार के बारे में सोच रहे थे कि अचानक नासिर साहेब की याद आई तो लगे उनकी शायरी पढ़ने, और पढ़ते पढ़ते खुद को शायरी से कब जोड़ लिया पता ही नहीं चला,मौका लगे तो आप भी काज़मी साहब से रुखसत हो लीजिएगा शायद आपके अंदर की बात इनके अल्फाजों में छुपी हो।

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